आजाद भारत का पहला नरसंहार
महात्मा गांधी की हत्या को कांग्रेस के अंदर के ही एक धड़े ने एक राजनीतिक मौके के तौर पर देखा. गांधी के हस्तक्षेप से नेहरू प्रधानमंत्री तो बन गए थे लेकिन पार्टी में उनकी खास नही चलती थी. कांग्रेस के दक्षिणपंथी हिंदूवादी धड़े के नेता सरदार पटेल थे. पटेल की कांग्रेस संगठन में ज़बरदस्त पकड़ थी. लेकिन सरदार पटेल के गृहमंत्री रहते हुए एक धुर दक्षिणपंथी द्वारा गांधी की हत्या हुई थी. नेहरू के करीबी नेताओं ने खुलेआम सरदार पर गांधी की सुरक्षा में लापरवाही बरतने का आरोप लगाया. कुछ लोगों ने दबी जुबान में सरदार को इस षड्यंत्र का हिस्सा तक बता दिया.
कांग्रेस के अंदर के दक्षिणपंथियों को पछाड़ने के लिए नेहरू ने गांधी की हत्या को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. इसकी परिणाम सन 1950 में दिखा जब दक्षिणपंथी माने जाने वाले पुरुषोत्तम दास टण्डन को हटाकर नेहरू स्वयं ही कांग्रेस अध्यक्ष बन बैठे. यही कांग्रेस के अंदर नेहरू युग की औपचारिक शुरुआत थी
नेहरू ने गांधी की हत्या को कांग्रेस के अंदर ही नही बल्कि बाहर के प्रतिद्वंदियों को निबटाने के लिए भी इस्तेमाल किया.
अब आते हैं असली मुद्दे पर 🚨
3️⃣0️⃣जनवरी, 1️⃣9️⃣4️⃣8️⃣ जब शाम के साढ़े पांच बजे महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी गई. जहां गांधी की हत्या उनके वैचारिक विरोधी नाथूराम गोडसे ने की, वहीं गांधीवाद की कसमें खाने वालों ने अगली सुबह तक गांधीवाद की भी हत्या कर दी थी.
नाथूराम गोडसे मराठी चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्में थे और हिन्दू राष्ट्र नाम के एक मराठी पत्र के संपादक थे. वह हिन्दू महासभा के सामान्य सदस्य भी थे. युवावस्था में गोडसे ने कुछ समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में भी बिताए थे. वैचारिक मतभेदों के कारण वह संघ से अलग हो गए थे.
हिन्दू महासभा सभा से गोडसे के जुड़े होने के कारण 30 जनवरी की रात को ही पुणे और मुम्बई में हिन्दू महासभा, आरएसएस और अन्य हिंदूवादी संगठन से जुड़े लोगों और कार्यालयों पर हमले शुरू हो गए. डॉ कोएनराड एल्स्ट की पुस्तक ‘वाय आई किल्ड द महात्मा (Why I Killed the Mahatma) के अनुसार 31 जनवरी की रात तक मुम्बई में 15 और पुणे में 50 से अधिक हिन्दू महासभा कार्यकर्ता,
संघ के स्वयंसेवक और सामान्य नागरिक मारे दिए गए और बेहिसाब संपत्ति स्वाहा हो गई.
3️⃣1️⃣जनवरी से3️⃣ फरवरी को दंगे और अधिक भड़के और अब यह पूरी तरह जातिवादी और ब्राह्मणविरोधी रंग ले चुका था. पुणा, सतारा, कोल्हापुर सांगली और बेलगाम जैसे ज़िलों में चितपावन ब्राह्मणों की संपत्ति, फैक्ट्री, दुकानें इत्यादि जला दी गई. औरतों के बलात्कार हुए. सबसे अधिक हिंसा सांगली के पटवर्धन रियासत में हुई.
आज़ाद भारत का सबसे पहला नरसंहार यही था, जिसमें असंख्य ब्राह्मणों की नृशंस हत्या कर दी गई। अहिंसा के पुजारी गाँधी का पार्थिव शरीर जिस वक़्त माटी का अपना अंतिम क़र्ज़ चुकाने के लिए चिता पर रखा जाना था, उस वक़्त पुणे और आसपास के इलाकों में न जाने कितने ब्राह्मणों का नरसंहार हो रहा था। यह नरसंहार हिंदुस्तान के इतिहास के उन पन्नों में दर्ज है, जिसके घटनाक्रमों का ज़िक्र किसी ने कभी नहीं किया।
उस वक्त की घटनाओं का वर्णन करने वाली किताब ‘गांधी एंड गोडसे’ में भी इसके प्रमाण मिलते हैं कि ब्राह्मणों के खिलाफ उस वक़्त काफी भयंकर माहौल बना दिया गया था, चितपावन ब्राह्मण समुदाय के लोगों की हत्याएँ आम हो गई थीं। इस पर भी जब कॉन्ग्रेस का मन नहीं भरा तो वहाँ ब्राह्मणों का सामूहिक बहिष्कार किया गया।
‘गांधी एंड गोडसे’ किताब के चैप्टर-2 के उप-शीर्षक 2.1 में मॉरिन पैटर्सन के उद्धरणों में इस बात का ज़िक्र किया गया है। अपने उद्धरण में मॉरिन ने बताया है कि कैसे गाँधी के अनुयाइयों द्वारा फैलाई जा रही इस हिंसा में ब्राह्मणों के प्रति नफरत फैलाने वाले संगठनों ने भी हवा दी। इनमें कुछ ऐसे संगठन भी थे जिनका नाम ज्योतिबा फुले से जुड़ा है।
उस वक़्त लेखक मॉरीन ने दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा किया था। उस समय के अपने संस्मरण लिखा है कि पुलिस के दखल के बाद जाकर कहीं इस भीड़ से सावरकर को शारीरिक क्षति से बचा लिया गया हालाँकि उन्होंने यह भी बताया कि दंगे को लेकर पुलिस ने कभी कोई भी सरकारी रिकॉर्ड उनसे शेयर नहीं किया। कई विश्लेषक मानते हैं कि अगर इस नरसंहार का आँकलन किया जाय तो 1948 का ब्राह्मण नरसंहार 1984 में हुए सिख दंगे से किसी मायने में
भी कम नहीं था।
मुंबई में स्वातन्त्र्यवीर सावरकर के घर पर भी हमला हुआ. सावरकर तो बच गए लेकिन उनके छोटे भाई डॉ नारायण राव सावरकर घायल हो गए और इसी घाव के कारण सन 1949 में उनकी मृत्यु हो गई. नारायण राव एक स्वतन्त्रता सेनानी और एक समाज सुधारक थे लेकिन समाज से बदले में उन्हें पत्थर ही मिल सका. उस समय तक दंगों पर प्रेस की रिपोर्टिंग पर बहुत सारी बंदिशें थीं. लेकिन एक अनुमान के अनुसार मरने वालों की संख्या हज़ार से भी अधिक थी. ये सब अहिंसा को अपने जीवन का मूलमंत्र मानने वाले गांधी के नाम पर हुआ. कोएनराड इन दंगों की तुलना सिख विरोधी दंगों से करते हैं. वे लिखते हैं कि जहां सिख विरोधी दंगो की सच्चाई देश वाकिफ है, वहीं महाराष्ट्र के इन दंगों की न कभी कोई चर्चा हुई और न किसी को कोई सजा मिली.
यही कुकर्म तथाकथित गांधीवादियों ने इंदिरा गांधी जी की हत्या के बाद भी किया जिसमें सिक्खों के गले में टायर डालकर
जिंदा जला दिया गया लगभग 3000सिक्खों का नरसंहार किया इन्होने उनके मकानों दुकानों को लुटा जलाया था 🛑
इसपर राजीव गांधी जी का बयान आया था
जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है 🚨
उस दौर के लोगों के दावों के अनुसार मुंबई, पुणे, सातारा, कोल्हापुर, सांगली, अहमदनगर, सोलापुर और कराड जैसे इलाकों में 1000 से 5000 चितपावन ब्राह्मणों को बर्बर तरीके से मौत के घाट उतार दिया गया। कुछ जगहों पर यह संख्या 8000 होने का भी दावा किया जाता है।
देश में दंगों का सिलसिला बँटवारे के पहले से होता आ रहा है मगर आज़ादी के बाद इसे नियंत्रित कर ख़त्म कर देना जिनके जिम्मे था, उन्होंने इसे पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ़ किसी विरासत की तरह आगे बढ़ाया। अफसोस कि ये सत्ता की मलाई भी चापते रहे!
इन हत्याओं ने भारतीय राजनीति में नेहरू गांधी परिवार को
स्थापित कर दिया अगर ये हत्याएं नहीं हुई होती तो आज भारतीय राजनीति में नेहरू गांधी वंश कहां होते अनुमान लगा सकते हैं ,सहानुभूति भी राजनीति में मायने रखती है ना प्यारे?
गांधी की हत्या का फ़ायदा नेहरू जी को हुआ था।नुकसान संघ
राइट विंग भारत ब्राह्मणों और पूरे हिंदू समाज का हुआ था❗
👌🏼👏🏼💐✔️
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