कलियुग में निषिद्ध कर्म

0


कलियुग में निषिद्ध कर्म


अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन् प्रसक्तश्चेन्द्रियस्यार्थे नरः पतनमृच्छति


विहित कर्म न करने से, निन्दित कर्म करने से तथा इंद्रियों के विषय में अति आसक्त होने से मनुष्य का पतन होता है।


प्रत्येक युग की अपनी महिमा होती है,उसी के अनुसार उस युग के विहित और निषिद्ध कर्म भी नियत किए गए हैं। इस प्रकार एक युग में जो नियत कर्म है; वही दूसरे युग में निषिद्ध या निन्दित भी हो सकता है। अतः इसे जानना और समझना धर्मपरायण व्यक्ति के लिए आवश्यक हो जाता है।


विशेषरूप से कलियुग के लिए निषिद्ध कर्मों के विषय में पुराणों में जानकारियाँ बिखरी हुई हैं जिन्हें ‘निर्णयसिंधु’ जैसे ग्रथों ने एकीकृत किया है। इस लेख में हम ‘धर्मसिन्धु’ (चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान) के आधार पर कलियुग के लिए कुछ निषिद्ध और निन्दित कर्मों को जानने का प्रयास करेंगे।


धर्मसिंधु, निर्णयसिंधु, कालमाधव जैसे ग्रंथ कर्तव्य–अकर्तव्य की स्थिति में शास्त्रों के आधार पर निर्णय लेने हेतु लिखे गये हैं अतः इनकी प्रामाणिकता शास्त्रों की प्रामाणिकता ही सिद्ध होती है।


कलियुग के लिए मुख्य निषिद्ध कर्म निम्नलिखित हैं*


 १ जल मार्ग से समुद्र पार की यात्रा करने वालों से सम्बन्ध रखना।

 २ जल से भरे कमण्डलु को धारण करना।

 ३ दूसरे वर्ण में उत्पन्न कन्या से (द्विजों का) विवाह करना।

 ४ देवर से पुत्र की उत्पत्ति करना।

 ५ वानप्रस्थ आश्रम धारण करना।

 ६ दान की हुई कन्या का पुनः दान करना।

 ७ लम्बे समय तक ब्रह्मचर्य रखना।

 ८ नरमेध, अश्वमेध, गोमेध आदि करना।

 ९ उत्तर दिशा की यात्रा करना।

 १० मदिरा (शराब) पीना अथवा उसके बर्तन का ही प्रयोग करना।

 ११ वाममार्ग के मदिरा भक्षण, मांस भक्षण आदि को मानना।

 १२ कलियुग में अपनी पत्नी से जनित पुत्र, दत्तक पुत्र अथवा किसीने अपना पुत्र स्वयं दिया हो – यही तीन पुत्र माने गये हैं।

 १३ ब्रह्महत्या करने वालों से संबंध रखने में दोष तो लगता है किन्तु व्यक्ति पतित नहीं होता क्योंकि पापों में संसर्ग का दोष नहीं है।

 १४ ऐसे लोग जो गुप्तरूप से अभक्ष्य का भक्षण करते हैं, अपेय का पान करते हैं या अगम्यागमन करते हैं ऐसे लोगों को जानने वालों को दोष तो लगता है किन्तु व्यक्ति पतित नहीं होता क्योंकि पापों में संसर्ग का दोष नहीं है।

 १५ जाति से बाहर किए गए पापियों का संसर्ग मनुष्य के पतितपने का कारण होता है। इस कारण से “सतयुग में देशका त्याग, त्रेता में ग्राम का त्याग, द्वापर में एक कुल का त्याग और कलियुग में पाप कर्म करने वाले का त्याग विहित है।”

 १६ किसी भी प्रकार के यज्ञ में किसी भी मान्यता में पशुओं की हिंसा (विशेष रूप से ब्राह्मणों के लिये) कलियुग में वर्जित है।

 १७ कलियुग में ज्येष्ठ आदि सभी भाइयों का बराबर भाग कहा गया है।

 १८ जहाज में बैठ कर समुद्र में गमन करने वाले द्विज ने प्रायश्चित भी किया हो तो भी उनका संसर्ग नहीं करना चाहिए।

 १९ आपातकाल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि के वृत्ति का त्याग करना चाहिये।


“ सतयुग  में पापी के साथ बोलने से मनुष्य पतित हो जाता था; त्रेतायुग में पापी को स्पर्श करने से पतितपना; द्वापरयुग में पापी के अन्न को ग्रहण करने से पतितपाना और कलियुग में पाप कर्म करने से या उसमें सहयोग करने से मनुष्य पतित होता है।”

Post a Comment

0Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !