बुढ़िया-हिंदू और इकोसिस्टम
एक बूढ़ी हर दिन मंदिर के सामने भीख मांगती थी.तो, एक बार मंदिर के पुजारी ने उस बुढिया पूछा- “आप तो किसी अच्छे घर से आई हुई लगती हो.आपका बेटा तो अच्छी नौकरी करता है ना ? फिर, रोज यहाँ आकर भीख क्यों मांगती हो ?”
इस पर उस बुढ़िया ने कहा- “बाबा, आप तो जानते हैं कि
मेरा बेटा आठ महीने पहले मुझे छोड़कर नौकरी के लिए चला गया.जाते समय उसने मेरे खर्चे के लिए कुछ पैसे देकर गया था... परंतु, वो सब पैसा अब खर्च हो चुका है.
और, चूँकि मैं भी अब बूढ़ी हो गई हूँ इस कारण परिश्रम करके धन नहीं कमा सकती.इसीलिए, मजबूरी में देव मंदिर के सामने भीख मांग रही हूँ.
पुजारी ने पूछा- “क्या, तुम्हारा बेटा अब पैसे नहीं भेजता ?
बुढिया ने कहा- “मेरा बेटा हर महीने एक-एक रंगबिरंगा कागज भेजता है.तो, मैं उसे चूम कर अपने बेटे के स्मरण में उसे दीवार पर चिपका देती हूं.
इस पर पुजारी ने उसके घर जाकर देखने को निश्चय किया.
अगले दिन वह उसके घर गया और, उस घर की दीवार को देख कर आश्चर्यचकित हो गया
क्योंकि, बुढ़िया ने उस दीवार पर 8-10 बैंक ड्राफ्ट चिपका के रखे थे जिसमें से कोई भी ड्राफ्ट 30-40,000 से कम के नहीं थे.
लेकिन,बुढिया पढ़ी-लिखी नहीं थी.इसीलिए, वो कभी समझ ही नहीं पाई कि उसके पास कितनी संपत्ति है.वो तो सिर्फ उसे रंग-बिरंगे कागज ही समझ कर प्यार करती रही..
और, उसे अपने एकलौते पुत्र की निशानी मान कर दीवार पर चिपकाती रही.
असल में हम सब हिंदू समुदाय भी ठीक उसी बुढ़िया की ही तरह हैं.क्योंकि हमारे पास जो धर्मग्रंथ है हम सब भी उसका मूल्य नहीं जानकर रोज सुबह नहा धो कर पुण्य कमाने के उद्देश्य से उसे माथे से लगाकर अपने घर में सुरक्षित रख देते हैं.
और,हम उसे कभी ध्यान से पढ़ते नहीं है इसीलिए कभी उसकी उपयोगिता को समझ भी नहीं पाते.तथा, बाहर सड़क पर खड़े होकर मजबूरी का रोना रोते रहते हैं कि हमारे पास ये नहीं है, हमारे पास वो नहीं है.
जैसे कि"इकोसिस्टम".
हमारा सबसे बड़ा रोना तो इसी बात को लेकर है कि हम दुश्मनों से कैसे लड़ेंगे , हमारे पास तो इकोसिस्टम ही नहीं है,जबकि, उनके पास एक मजबूत इकोसिस्टम है.और उनके पास ऐसा इकोसिस्टम इसीलिए है
क्योंकि, उनके पास जकात सिस्टम है,फॉरेन फंडिंग है
तो, इसका भी जबाब हमारे धर्मग्रंथ में ही मौजूद है.
भला,हमारे ऐसे कौन से धर्मग्रंथ हैं जो दान की बात नहीं करते हैं ??
हमारे सारे के सारे धर्मग्रंथ एक सुर में ब्राह्मणों को दान की बात करते हैं.न सिर्फ बात करते हैं बल्कि क्षमता होने के बावजूद भी दान न देने को "घोर पाप" तक बताया गया है.
तो, क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे धर्मग्रंथों में ब्राह्मणों को दान देने को क्यों कहा गया है ?
असल में शास्त्रों में ब्राह्मण को "गुरु" बताया गया है।अब याद करें कि पुराने जमाने में गुरु किस चीज की शिक्षा देते थे ???
शस्त्र और शास्त्र की ही तो शिक्षा देते थे।
इसीलिए हमारे धर्मग्रंथ में गुरु एवं उनके विद्यार्थियों को दान देने के लिए कहा गया था।.
अगर हम सामान्य शब्दों में कहें तो हमारे धर्मग्रंथों में यही तो बताया है कि,जो भी व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को पर्सनल कैपेसिटी से अथवा संस्थान (संगठन) बना कर शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा देता हो उसे ब्राह्मण (गुरु) माना जाए..
तथा,उन्हें , उनके संगठन एवं उनके शिष्यों को दान का अधिकारी बताते हुए उन्हें दान न देने को पाप तक बताया गया है.
अब पाप का भी अर्थ वही हो गया कि अगर आप दान (मदद) दोगे नहीं तो अपना इकोसिस्टम तैयार नहीं कर पाओगे.और, जब आपका अपना इकोसिस्टम होगा नहीं,आप आपस में विखंडित रहोगे तथा आपकी तरफ से लड़ने वाला कोई नहीं होगा.
तो, इसका परिणाम ये होगा कि मुट्ठी भर राक्षस आपके सर पर चढ़ कर नाचते रहेंगे।इसीलिए आप गुरुओं (संगठन) को दान देकर अर्थात उन्हें हर तरह मदद करके अपनी एवं अपने समाज में दुश्मनों से लड़ने हेतु धर्मयोद्धा तैयार करवाओ ताकि आपका जान माल राक्षसों से सुरक्षित रह पाए.
दुर्भाग्य से कालांतर में ब्राह्मण का अर्थ पूजा पाठ करने वाले वाले ब्राह्मण से लगा लिया गया और दान का मतलब दानपेटी में कुछ पैसे डालकर पुण्य कमाने से हो गया.और धर्मग्रंथों में कही बातों के एक छोटे से गलत मतलब ने हमें अर्श से लाकर फर्श पर पटक दिया.
जबकि हमारे हर धर्मग्रंथ ब्राह्मण का अर्थ गुरु ही बताते हैं वैसे गुरु जो अपने शिष्यो को हर तरह की शिक्षा दें और, अपने धर्म के लिए लड़ने हेतु समाज में धर्मयोद्धा तैयार करें.
यही तो है इकोसिस्टम..
और, इकोसिस्टम बनाने का तरीका.जिसके बारे में हमारे सभी धर्मग्रन्थ स्पष्ट आदेश देते हैं.
लेकिन, हम भी उसी बुढ़िया की तरह आजतक अपने धर्मग्रंथों में लिखी बातों का मतलब समझ ही नहीं पाए और, न ही उसे आज के वर्तमान परिदृश्य से को-रिलेट कर पाए.
परिणामतः... आज हम 100 करोड़ होने के बावजूद भी भेड़ बनकर जीने को मजबूर हैं..
क्योंकि, हम अपने आप को हर तरफ से लाचार और असहाय पाते हैं.
इसीलिए, अब जरूरत है अपने धर्मग्रंथों को रेफर करने की और उन्हें समझने एवं उन्हें अभी के वर्तमान परिदृश्य से को-रिलेट करने की.क्योंकि, हमारी सभी समस्याओं का समाधान उसी में समाहित है.
और, इसका कारण ये हो सकता है कि हम आज जिन परिस्थितियों को फेस कर रहे हैं..
शायद, हमारे पूर्वज भी ऐसी परिस्थितियों से गुजर चुके थे.
फिर अपना अनुभव हमें बताने के लिए उन्होंने अपने अनुभवों को धर्मग्रंथों के रूप में लिपिबद्ध कर दिया जिसमें उन्होंने विभिन्न प्रकार के राक्षस, उनके वरदान, उन वरदानों का तोड़,इकोसिस्टम बनाने का तरीका आदि सब कुछ विस्तार से लिख दिया!
लेकिन, हम भी ऐसे बेवकूफ कि अपने पूर्वजों के अनुभव को पढ़कर विश्वगुरु एवं सर्वशक्तिशाली बनने की जगह
उस अनुभवों को रंग बिरंगे कागज एवं पुण्य कमाने का जरिया मान बैठे,
तथा, उसी बुढ़िया की तरह खुद को गरीब एवं मजबूर मानकर सड़क पर भीख मांगने निकल पड़े.
जबकि जरूरत है अपने पूर्वजों के अनुभवों सीख लेकर दुश्मनों को धूल चटा देने की.आखिर, इस पूरी दुनिया में हमारे अलावा ऐसी कौन सी प्रजाति है जिन्हें राक्षसों से लड़ने एवं नेस्तनाबूत करने का हमसे ज्यादा अनुभव हो.
हमारे तो सारे धर्मग्रंथ इसी से तो भरे पड़े हैं.