हिंदू धर्मग्रंथों के ज्ञान का सार

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 हिंदू धर्मग्रंथों के ज्ञान का सार


🚩ईश्वर के बारे में :

ब्रह्म (परमात्मा) एक ही है।वह अजन्मा, अप्रकट है। उसका न कोई पिता है,न ही कोई उसका पुत्र है। उसका न तो कोई प्रारंभ है और न ही अंत। वह अनादि और अनंत है। उसकी उपस्थिति से ही संपूर्ण ब्रह्मांड चलायमान है। सभी कुछ उसी से उत्पन्न होकर अंत में उसी में लीन हो जाता है।


🚩ब्रह्मांड के बारे में :

यह दिखाई देने वाला जगत फैलता जा रहा है और दूसरी ओर सिकुड़ता जा रहा है। लाखों सूर्य, तारे और धरतीयों का जन्म है, तो उसका अंत भी।यह ब्रह्मांड परिवर्तनशील है। इस जगत का संचालन उसी की शक्ति से स्वत: ही होता है।


🚩आत्मा के बारे में :

आत्मा का स्वरूप ब्रह्म समान है।  आत्मा के शरीर में होने के कारण शरीर संचालित हो रहा है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि संपूर्ण धरती, सूर्य, ग्रह-नक्षत्र और तारे भी उस एक परमपिता की उपस्थिति से ही संचालित हो रहे हैं।

आत्मा का न जन्म होता है  न मृत्यु । आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है।आत्मा को प्रकृति द्वारा 3 शरीर मिलते हैं- एक, वह जो स्थूल आंखों से दिखाई देता है। दूसरा, वह जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं, जो कि ध्यानी को ही दिखाई देता है और तीसरा, वह शरीर जिसके कारण शरीर कहते हैं, उसे देखना अत्यंत ही मुश्किल है। बस उसे वही आत्मा महसूस करती है, जो कि उसमें रहती है।


🚩स्वर्ग और नरक के बारे में :

वेदों के अनुसार पुराणों के स्वर्ग या नर्क को गतियों से समझा जा सकता है। स्वर्ग और नर्क 2 गतियां हैं। आत्मा जब देह छोड़ती है तो मूलत: 2 तरह की गतियां होती हैं- 1. अगति और 2. गति।

▪️अगति : अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।

 ▪️गति: गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है या वह अपने कर्मों से मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

 👉अगति के 4 प्रकार हैं-

 1. क्षिणोदर्क, 2. भूमोदर्क, 3. अगति और 4. दुर्गति।

 

 ✴️क्षिणोदर्क : क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्युलोक में आता है और संतों-सा जीवन जीता है।

 ✴️भूमोदर्क : भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है।

 ✴️अगति : अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।

 ✴️दुर्गति : दुर्गति में वह कीट-कीड़ों जैसा जीवन पाता है।

 

 👉गति के भी 4 प्रकार- गति के अंतर्गत 4 लोक दिए गए हैं- 1. ब्रह्मलोक, 2. देवलोक, 3. पितृलोक और 4. नर्कलोक। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।


🚩तीन मार्गों से यात्रा :

जब भी  मनुष्य आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे 3 प्रकार के मार्ग मिलते हैं। ऐसा कहते हैं कि उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा और यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये 3 मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।


🚩धर्म और मोक्ष के बारे में :

धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म का अर्थ है यम और नियम को समझकर उसका पालन करना। नियम ही धर्म है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य होता है मोक्ष क्या है? स्थितप्रज्ञ आत्मा को मोक्ष मिलता है। मोक्ष का भावार्थ यह कि आत्मा शरीर नहीं है, इस सत्य को पूर्णत: अनुभव करके ही अशरीरी होकर स्वयं के अस्तित्व को पुख्‍ता करना ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है।


🚩व्रत और त्योहार के बारे में :

हिन्दू धर्म के सभी व्रत, त्योहार या तीर्थ सिर्फ मोक्ष की प्राप्त हेतु ही निर्मित हुए हैं। मोक्ष तब मिलेगा जब व्यक्ति स्वस्थ रहकर प्रसन्नचित्त और खुशहाल जीवन जीएगा। व्रत से शरीर और मन स्वस्थ होता है। त्योहार से मन प्रसन्न होता है।

मौसम और ग्रह-नक्षत्रों की गतियों को ध्यान में रखकर बनाए गए व्रत और त्योहारों का महत्व अधिक है। व्रतों में चतुर्थी, एकादशी, प्रदोष, अमावस्या, पूर्णिमा, श्रावण मास और कार्तिक मास के दिन व्रत रखना श्रेष्ठ है।त्योहारों में मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, नवरात्रि, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और हनुमान जन्मोत्सव ही मनाएं। पर्व में श्राद्ध और कुंभ का पर्व जरूर मनाएं।


🚩तीर्थ के बारे में :

तीर्थ और तीर्थयात्रा का बहुत पुण्य है। जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं, उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थों में 4 धाम ज्योतिर्लिंग, अमरनाथ, शक्तिपीठ और सप्तपुरी की यात्रा का ही महत्व है। अयोध्या, मथुरा, काशी और प्रयाग को तीर्थों का प्रमुख केंद्र माना जाता है जबकि कैलाश मानसरोवर को सर्वोच्च तीर्थ माना गया है। बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम् और जगन्नाथपुरी ये 4 धाम हैं। सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ, विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम्, घृष्णेश्वर और बैद्यनाथ ये द्वादश ज्योतिर्लिंग हैं। काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया, कांची और अवंति उज्जैन ये सप्तपुरियां हैं। उपरोक्त कहे गए तीर्थ की यात्रा ही धर्मसम्मत है।


🚩संस्कार के बारे में :

संस्कारों के प्रमुख प्रकार 16 बताए गए हैं जिनका पालन करना हर हिन्दू का कर्तव्य है। इन संस्कारों के नाम है- गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। प्रत्येक हिन्दू को उक्त संस्कार को अच्छे से नियमपूर्वक करना चाहिए। यह मनुष्य के सभ्य और हिन्दू होने की निशानी है। उक्त संस्कारों को वैदिक नियमों के द्वारा ही संपन्न किया जाना चाहिए।


🚩पाठ करने के बारे में :

वेदों, उपनिषद या गीता का पाठ करना या सुनना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है। उपनिषद और गीता का स्वयं अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है। लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है। प्रतिदिन धर्मग्रंथों का कुछ पाठ करने से देव शक्तियों की कृपा मिलती है। हिन्दू धर्म में वेद, उपनिषद और गीता के पाठ करने की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। जबकि वेदपाठ और गीता पाठ का अधिक महत्व है।


🚩धर्म, कर्म और सेवा के बारे में :

धर्म-कर्म और सेवा का अर्थ यह कि हम ऐसा कार्य करें जिससे हमारे मन और मस्तिष्क को शांति मिले और हम मोक्ष का द्वार खोल पाएं। साथ ही जिससे हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय हित भी साधे जाते हों अर्थात ऐसा कार्य जिससे परिवार, समाज, राष्ट्र और स्वयं को लाभ मिले। धर्म-कर्म को कई तरीके से साधा जा सकता है।


🚩दान के बारे में :

दान से इन्द्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियां खुलती हैं जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। देव आराधना का दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेदों में 3 प्रकार के दाता कहे गए हैं- 1. उक्तम, 2. मध्यम और 3. निकृष्‍टतम। धर्म की उन्नति, रूप, सत्य विद्या के लिए जो देता है, वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है वह मध्यम और जो वेश्‍यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्‍ट माना गया है। पुराणों में अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है, यही पुण्‍य भी है।


🚩यज्ञ के बारे में :

यज्ञ के प्रमुख 5 प्रकार हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ। यज्ञ पालन से ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण समाप्त होता है। नित्य संध्यावंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है। देवयज्ञ सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से संपन्न होता है।  पितृयज्ञ  पिंडदान, तर्पण और संतानोत्पत्ति से संपन्न होता है। वैश्वदेव यज्ञ को भूत यज्ञ भी कहते हैं। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्तव्य समझना व उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ कहलाता है। अतिथि यज्ञ से अर्थ मेहमानों की सेवा करना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है।


🚩मंदिर जाने के बारे में :

भारत में मंदिरों, तीर्थों और यज्ञादि की परिक्रमा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही रहा है। मंदिर की 7 बार (सप्तपदी) परिक्रमा करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह 7 परिक्रमा विवाह के समय अग्नि के समक्ष भी की जाती है। प्रदक्षिणा षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है। हिन्दू सहित जैन, बौद्ध और सिख धर्म में भी परिक्रमा का महत्व है। पूजा-पाठ, तीर्थ परिक्रमा, यज्ञादि पवित्र कर्म के दौरान बिना सिले सफेद या पीत वस्त्र पहनने की परंपरा भी प्राचीनकाल से हिन्दुओं में प्रचलित रही है। मंदिर जाने या संध्यावंदन के पूर्व आचमन या शुद्धि करना जरूरी है।


🚩संध्यावंदन के बारे में :

मंदिर में जाकर संधिकाल में ही संध्यावंदन की जाती है। वैसे संधि 8 वक्त की मानी गई है। उसमें भी 5 महत्वपूर्ण हैं। 5 में से भी सूर्य उदय और अस्त अर्थात 2 वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय  शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संध्योपासना के 4 प्रकार हैं- 1. प्रार्थना, 2. ध्यान, 3. कीर्तन और 4. पूजा-आरती। व्यक्ति की जिसमें जैसी श्रद्धा है, वह वैसा करता है।


🚩धर्म की सेवा के बारे में :

धर्म की प्रशंसा करना और धर्म के बारे में सही जानकारी को लोगों तक पहुंचाना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य होता है। धर्म प्रचार में वेद, उपनिषद और गीता के ज्ञान का प्रचार करना ही उत्तम माना गया है।  प्रत्येक व्यक्ति को धर्म प्रचारक होना जरूरी है। इसके लिए भगवा वस्त्र धारण करने या संन्यासी होने की जरूरत नहीं। स्वयं के धर्म की तारीफ करना और बुराइयों को नहीं सुनना ही धर्म की सच्ची सेवा है।


🚩मंत्र के बारे में :

वेदों में बहुत सारे मंत्रों का उल्लेख मिलता है, लेकिन जपने के लिए सिर्फ प्रणव और गायत्री मंत्र ही कहा गया है, बाकी मंत्र किसी विशेष अनुष्ठान और धार्मिक कार्यों के लिए है। वेदों में गायत्री नाम से छंद है जिसमें हजारों मंत्र हैं किंतु प्रथम मंत्र को ही गायत्री मंत्र माना जाता है। उक्त मंत्र के अलावा किसी अन्य मंत्र का जाप करते रहने से समय और ऊर्जा की बर्बादी है। गायत्री मंत्र की महिमा सर्वविदित है। दूसरा मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र, लेकिन उक्त मंत्र के जप और नियम कठिन है इसे किसी जानकार से पूछकर ही जपना चाहिए।


🚩प्रायश्चित के बारे में :

प्राचीनकाल से ही हिन्दुओं में मंदिर में जाकर अपने पापों के लिए प्रायश्चित करने की परंपरा रही है। प्रायश्‍चित करने के महत्व को स्मृति और पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। गुरु और शिष्य परंपरा में गुरु अपने शिष्य को प्रायश्चित करने के अलग-अलग तरीके बताते हैं। दुष्कर्म के लिए प्रायश्चित करना तपस्या का एक दूसरा रूप है। यह मंदिर में देवता के समक्ष 108 बार साष्टांग प्रणाम, मंदिर के इर्द-गिर्द चलते हुए साष्टांग प्रणाम और कावडी अर्थात वह तपस्या, जो भगवान मुरुगन को अर्पित की जाती है, जैसे कृत्यों के माध्यम से की जाती है। मूलत: अपने पापों की क्षमा भगवान शिव और वरुणदेव से मांगी जाती है, क्योंकि क्षमा का अधिकार उनको ही है।

🚩दीक्षा देने के बारे में :

दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता-पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे तब भी दीक्षा दी जाती थी। हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दी

दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है। दीक्षा के बाद व्यक्ति द्विज बन जाता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्म। दूसरा व्यक्तित्व। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहते हैं।

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10Comments
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  1. सत्य सनातन धर्म की जय

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  2. उत्तम जानकारी सत्य सनातन धर्म की जय

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  3. Jai shree ram 🙏🏻🚩🏵🚩🙏🏻

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  4. 🚩🚩❤️❤️❤️🙏🙏🙏👏👏👏🚩🚩🚩🚩🚩 जय सनातन हिंदू धर्म ❤️❤️❤️❤️❤️🙏🙏🙏🙏👏👏👏👏🚩🚩🚩🚩🚩

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