परिक्रमा का विज्ञान
केन्द्र स्थिर हो आवेशित हो तो परिधि घूमती है (सीलिंग फैन)।
परिधि स्थिर हो आवेशित हो तो केन्द्र घूमता है (टेबिल फैन)
वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार हम जानते हैं कि वर्तुलाकार घूमते ऊर्जा पुंज चुंबकीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं । मनुष्य स्वयं प्राण ऊर्जा का पुंज ही होता है ।जब हम किसी केन्द्र के चारों ओर घूमेंगे तो निश्चित ही चुंबकीय प्रभाव उत्पन्न होता है ।
ऋषियों ने परिक्रमा के स्थिति के अनुसार होने वाले प्रभाव को समझा तथा उसके लिए नियम निर्धारित किए । इष्ट को दायीं ओर रख कर की जाने वाली परिक्रमा को दक्षिणावृति कहा तथा उसे सकारात्मक शुभ कहा ।
इष्ट को बायीं ओर रख कर की जाने वाली परिक्रमा को वामावृति कहा तथा उसे नकारात्मक अशुभ कहा ।
सनातन में स्वस्तिक के भी दो रूप बताये गये हैं ।दक्षिणावृति स्वस्तिक, वामावृति स्वस्तिक ।दक्षिणावृति(सीधा) स्वस्तिक शुभ तथा वामावृति(उल्टा) स्वस्तिक अशुभ कहा गया ।
सनातन धर्म में शिव के मंदिर के अतिरिक्त सभी मंदिरों में पूर्ण परिक्रमा का विधान है ।
शिव मंदिर की परिक्रमा शिव पर चढ़ाये जल की निकासी नाली तक की जाती है, वही से वापस हो कर दूसरी तरफ निकास नाली तक जाते हैं ।तथा फिर वापस घूम कर नाली तक आते हैं ।।
परिक्रमा भी ध्यान साधना का अंग है ।अतः सामान्यतः लोग सात परिक्रमा करते हैं ।विशेष संकल्प के साथ की जाने वाली परिक्रमा 21,51,108 भी करते हैं ।
साधकों के द्वारा निरन्तर साधना करने के प्रभाव से वह क्षेत्र विशेष ऊर्जा वान होते रहते हैं ।उस विशेष चुंबकीय प्रभाव, ऊर्जा को अनुभव करने के लिए अतिरिक्त संवेवेदनशीलता की आवश्यकता होती है
मंदिर में प्रवेश से पूर्व सीढ़ियों पर नमस्कार चित्त को सांसारिक चिन्तन से मुक्त कर उस क्षेत्र में उपलब्ध सकारात्मक ऊर्जा को आत्मसात करने के लिए तैयार होना होता है ।
फिर मंदिर की परिक्रमा तदुपरान्त मंदिर में प्रवेश, मंदिर में पूरे परिवेश के दर्शन के साथ इष्ट के दर्शन ।बाद में बाहर आ कर पुनः सीढ़ियों पर नमस्कार करके बैठना ।वहां से प्राप्त ऊर्जा को अनुभव करना तथा और ग्रहण करना ।
फिर पुनः सीढ़ियों पर नमस्कार और शान्ति से मंदिर की ओर मुख कर कुछ कदम पीछे चलना, तथा फिर मुड़कर चलना ।
मंदिर में जाने से पूर्व परिधि से केन्द्र की ओर यानि पहली परिक्रमा के बाद प्रत्येक परिक्रमा पर धीरे धीरे मंदिर के निकट जाना ।तथा मंदिर से बाहर वापस होने पर केन्द्र से परिधि की ओर यानि प्रत्येक परिक्रमा के साथ धीरे धीरे दूर होते जाना।तथा प्रति पल उस क्षेत्र में उपलब्ध सकारात्मक ऊर्जा को आत्मसात करना, अनुभव करना होता है।
दो विपरीत धारायें साथ साथ वर्तुलाकार घूमतीं हों तो चमत्कारी चुंबकीय प्रभाव उत्पन्न होता है.यह ऋषि मुनियों ने हजारों वर्ष पूर्व जान लिया था.