क्यों हो रहे हैं साधु-सन्त बदनाम और व्यभिचारी को दुआ-सलाम ?
जब चौपाल में साधु संतों की चर्चा होती है तो मन में एक मैली छवि उभर आती है – दाढ़ी वाले बाबा, ढोंगी बाबा, पाखंडी बाबा, बलात्कारी, अंधविश्वासी आदि।
आखिर जिस देश की विरासत और सियासत, दोनों ही ऋषि-मुनियों की ऋणी है वहीं पर इनकी छवि इतनी घिनौनी कैसे हो गई? 200 साल तक हम अंग्रेजों की गुलामी में रहे और अन्ततः 1947 में हम आजाद हुए लेकिन देश और धर्म विरोधी ताकतों की गुलामी चालू रही।
स्वत्ंत्रता के ७० वर्षों में भी हमारी मूल संस्कृति पर विधर्मियों के कुठाराघात होते रहे। इससे हम गुलामी की मानसिकता से उबर नही पाए और हम अपने संस्कार, अपनी रीति-रिवाज़ो को ही अपनी गुलामी का कारण मानने लगे। ऊपर से विदेशी मीडिया द्वारा संस्कृति के सतत् पाश्चात्यानुकरण से हम अपने धर्म और संतों को ही हेय-दृष्टि से देखने लगे।
समाज की इस दशा में सबसे बड़ा योगदान किसका है?
सच पूछे तो टीवी, पत्रकारिता और फिल्मों का है। आज़ादी के बाद से फिल्म जगत का समाज पर प्रभाव दशक-दर-दशक बढ़ता ही रहा। शुद्ध मनोरंजन के नाम पर अनैतिक दृश्यांकन बढ़ते रहे। आपराधिक, अश्लील एवं मर्यादाहीन दृश्यों से युवा और बाल-समाज का बड़ा ह्रास हुआ है।
वास्तविकता से अनभिज्ञ हिंदू समाज इसमें मनोरंजन देखता रहा, इसी मनोरंजन ने समाज को धर्म-संस्कृति और ऋषि मुनियों के आदर्शों से दूर कर दिया। धर्म विरुद्ध प्रसंगों से मनोरंजन करने की जो आदत लगी है उससे समाज की बड़ी हानि हुई है।
सन 2000 से तो साधु-संतों को काल्पनिक प्रसंगों में इनके स्वभाव के विपरीत ही आचरण करते दर्शाया गया है। फिरौती लेना, व्यभिचार करना या अन्य अनैतिक कर्मों मे लिप्त रहना – ऐसे दृष्टांत दे दे कर साधु समाज की प्रतिष्ठा ही नष्ट कर दी।
परिणाम यह हुआ कि अपनी संस्कृति के तिरस्कार पर मज़ा लेने वाला समाज आज उन्ही सामाजिक बुराईयों से त्रस्त है। नैतिक-पतन के चलते अब कोई भी किसी पर विश्वास नही करता। जब नैतिकता के स्त्रोत संत-समाज को ही निंदित कर दिया तो समाज किससे सीख लेता। जब मर्यादित जीवन को पिछड़ा समझा जाने लगा तो फिर कौन मर्यादा पुरुषोत्तम से सीख लेता।
आज समाज में अपराध, व्यभिचार, प्रेम-प्रसंग आदि साधारण विषय हो गए हैं। युवाओं का अशुद्ध खान-पान व दुर्व्यसन के प्रति बेरोकटोक लगाव एवम् पाश्चात्य अंधानुकरण से वे पथभ्रष्ट हो गए हैं। अपने जीवन का मूल्य सिखाने वाले धर्म गुरुओं के प्रति ही शंका एवं घृणा रखने लगे हैं।
दूसरी ओर भारत को खंडित करने वाले मिशनरी व जिहादी मिलकर हिन्दू साधु-संतों व सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में लगी संस्थाओं पर झूठे आरोप लगाते हैं। षडयंत्रपूर्वक हत्याएं करवा कर, मीडिया में साधु-समाज को बदनाम करने पर तुले हुए हैं। ऐसे में राष्ट्र्वादी चिंतकों के लिए भारतवर्ष की सांस्कृतिक व धार्मिक विरासत को बचाना भारी चुनौती बन गया है।
स्मरण रहे, यदि संतों का सम्मान करना नहीं सीखा तो देश और समाज को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा क्योंकि जहाँ वन्दनीयों का क्रंदन हो और निंदनियों का वंदन हो वहाँ रोग, भय और मृत्यु का तांडव होता ही है।
हमारे ऋषि-मुनि, साधु-संत, शास्त्र व दैवी परम्पराएँ हमारी विरासत है, इनका अस्तित्व हमारे व्यक्तित्व के लिए नितांत आवश्यक है। जब तक इनका आदर-पूजन है तभी तक भारत का अस्तित्व है, अखंडता है वरना हमारी क्या पहचान है?
*स्त्रोत* : "संत है तो समाज है"
"अपनी परंपरा"
लेखक:- खोदभाई - प्रशासक समिति सदस्य
बढ़िया लेख खोद भाई द्वारा👌👌🚩
ReplyDeleteलेख प्रेरणादायक
ReplyDeleteअति सुन्दर भाई जी, प्रणाम स्वीकार करॆ🙏
ReplyDeleteअति उत्तम जानकारी प्रेरणा सोत्र,
ReplyDeleteजागरूकता फैला कर ही अपना सम्मान संभव है तथा जेहादियो की पोल खोली जा रही है
ReplyDeleteJab tak desh ki teen mahttvpurn sansthaye sanataniyo ke pas nahi aati tab tak kuchh nahi Ho sakta education jiska isaikaran Ho gaya history jO leftist Ho gaya entetenment jiska islamikaran Ho gaya sanatani logo ko sadak par Aana hoga apni awaz sarkaro tak pahuchani hogi Aur apni takat bhi
ReplyDeleteअति उत्तम
ReplyDelete🙏🙏,,,,,वाह
ReplyDeleteबिल्कुल सही राम राम
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