विष्णु पुराण के अनुसार वैकुंठ लोक का स्थान

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विष्णु पुराण के अनुसार वैकुंठ लोक का स्थान



जितनी दूर तक सूर्य और चन्द्रमा की किरणों का प्रकाश जाता है, समुद्र, नदी और पर्वतादि से युक्त उतना प्रदेश पृथ्वी कहलाता है।जितना पृथ्विी का विस्तार और परिमण्डल है उतना ही विस्तार और परिमण्डल भुवलोंक का भी है। पृथ्वी से एक लाख योजन दूर सूर्यमण्डल है और सूर्यमण्डल से भी एक लक्ष योजन के अन्तर पर चन्द्रमण्डल है। चन्द्रमा से पूरे सौ हजार (एक लाख) योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल प्रकाशमान हो रहा है।

नक्षत्र मण्डल से दो लाख योजन ऊपर बुध और बुध से दो लाख ऊपर शुक्र स्थित हैं। शुक्र से इतनी ही दूरी पर मङ्गल हैं और मङ्गल से भी दो लाख योजन ऊपर बृहस्पति हैं।बृहस्पति से दो लाख योजन के ऊपर शनि हैं। और शनि से एक लाख योजन के अनन्तर पर सप्तर्षि मण्डल है। सप्तर्षियों से भी सौ हजार योजन के ऊपर समस्त ज्योतिश्चक्र की नाभिरूप ध्रुवमण्डल स्थित है और यज्ञानुष्ठान की स्थिति इस भारतवर्ष में ही है।


ध्रुव से एक करोड़ योजन ऊपर महलोंक है, जहाँ कल्पान्त- पर्यन्त रहने वाले भृगु आदि सिद्धगण रहते हैं उससे भी दो करोड़ योजन ऊपर जनलोक है जिसमें ब्रह्माजी के प्रख्यात पुत्र निर्मल चित्त सनकादि रहते हैं।


जनलोक से चौगुना अर्थात् आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है, वहाँ वैराज नामक देवगणों का निवास है जिनका कभी दाह नहीं होता।


तपलोक से छः गुना अर्थात् बारह करोड़ योजन के अनन्तर पर सत्यलोक सुशोभित है जो ब्रह्मलोक भी कहलाता है और जिसमें फिर न मरने वाले अमरगण निवास करते हैं।


पृथ्वी और सूर्य के मध्य में जो सिद्धगण और मुनिगण सेवित स्थान है, वही दूसरा भुवर्लोक है। सूर्य और ध्रुव के बीच में जो चौदह लक्ष योजन का अन्तर है, उसी को लोक स्थिति का विचार करने वालों ने स्वर्लोक कहा है।

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