घूंघट रखना और सर ढंकना, दोनों में अन्तर है।
सनातन धर्म में सर ढंकने की प्रथा है, घूंघट की नहीं।
कारण :-
ब्रम्हरंध्र सर के कठोर होने के साथ बन्द हो जाता है जिसे खोलने के लिए ध्यान अध्यात्म की आवश्यकता पड़ती है। और कई महात्मन इसी प्रयास में जीवन बिता देते है।
ब्रम्हरंध्र और शरीर के दशम द्वार को खोलने के लिए अभ्यास और ध्यान की आवश्यकता पड़ती है जिसे चंचल मन को वश कर के ही कर पाना सम्भव है। और मन की चंचलता को स्थिरता प्रदान करने में सर के ढंका होने की महत्वपूर्ण भूमिका है।
पूजा के समय भी ध्यानर्जन के लिए सर पर पल्लू या कोई कपड़ा रखने का नियम है। जो महिला और पुरुष दोनों के लिए समान है।
अब बात होती है *घूंघट प्रथा* की तो सनातन के किसी ग्रंथ में ऐसा उल्लेख नही मिलता की चेहरा ढंका हुआ होना चाहिए।
यह प्रथा नीच बलात्कारी मुग़ल आक्रमणकारियों के भय से माँ पद्मिनी के जोहर के पश्चात भूखे भेड़यों की कुदृष्टि से अपनी सुंदरता को छिपा कर रखने व अपने शील मर्यादा की रक्षा करने हेतु महिलाओं द्वारा किया गया उपाय मात्र था। *यह सनातन भारत की देन नहीं है।*
*इस संबंध में कुछ विद्वानों के मतानुसार 'रामायण' और 'महाभारत' कालीन स्त्रियां किसी भी स्थान पर पर्दा अथवा घूंघट का प्रयोग नहीं करती थीं। अजन्ता और सांची की कलाकृतियों में भी स्त्रियों को बिना घूंघट दिखाया गया है। मनु और याज्ञवल्क्य ने स्त्रियों की जीवन शैली के सम्बन्ध में कई नियम बनाए हुए हैं, परन्तु कहीं भी यह नहीं कहा है कि स्त्रियों को पर्दे में रहना चाहिए।
संस्कृत नाटकों में भी पर्दे का उल्लेख नहीं है। यहां तक कि 10वीं शताब्दी के प्रारम्भ काल के समय तक भी भारतीय राज परिवारों की स्त्रियां बिना पर्दे के सभा में तथा घर से बाहर भ्रमण करती थीं, यह वर्णन स्वयं एक अरब यात्री अबू जैद ने अपने लेखन के जरिए किया है। स्पष्ट है कि भारत में प्राचीन समय में कोई पर्दाप्रथा जैसी बिमार रूढ़ी प्रचलन में नहीं थी।
लेकिन कुछ उल्टी बुद्धि के लोगों ने इसे अपना लिया...!!
सर ढंकना और घूंघट रखना, इसमें अंतर है। सर ढंकने की प्रथा महिलाओं और पुरुषों, दोनों के लिए ही है। सर ढंकने के पीछे वैज्ञानिक, सामाजिक व आध्यात्मिक सभी प्रकार के हित निहित है जिसे श्रद्धा से पालन करें।